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Showing posts from February, 2015

लहरें

यह कैसी लहरें हैं ज़ीस्त-ए-इन्सान में उठने प जिनकेे, सर ताजपोश है क़िस्मत से और बग़ैर जिनके, यह कारवाँ-ए-ज़िन्दगी कैद है मलाल ख़लिश-ओ-जिद्दोजिहद में ऐसी ही लहरों पर शनावर हैं हम अब क़बूल कीजिए जब पेश है ख़िदमत इनकी या पाएँ गुमशुदा यह ख़्वाब-ओ-मनसूबे (With apologies to William Shakespeare)

पगडन्डियाँ

फिर मिलीं पगडन्डियाँ और फिर मिलीं वह रंजिशें, फिर मिलीं मोहब्बतें, वह इश्क़ में झूमती बारिशें, जो वह दर बस्ता हैं अब क्या वापसी ख़ाना बर्दोश रह गयी हैं ख़्वाहिशें, बस रह गयी हैं ख़्वाहिशें